नकारात्मक को सकारात्मक में कैसे बदलें 9 उपाय – Negative To Positive Thinking In Hindi
How To Change Negative To Positive Thinking In Hindi : किसे नहीं पता कि आजकल घर-बाहर हर जगह, सब ओर विभिन्न नकारात्मकताओं की भरमार है जिनके बीच हम स्वयं को डूबता-उतराता पाते हैं परन्तु ध्यान में सदैव रखना होगा कि नकारात्मक परिस्थितियों से अपनी मनोस्थिति को नकारात्मक बिल्कुल नहीं होने देना है।
अपने भीतर नकारात्मकता को पनपने से भी रोकना है। यहाँ ऐसे सटीक उपायों का वर्णन किया जा रहा है जिनका आश्रय लेकर हम नकारात्मकताओं से सकारात्मकताओं की ओर बढ़ सकते हैं.
How To Change Negative To Positive Thinking In Hindi
1. क्रोधादि विपरीत भावों के कारणों-प्रभावों का विश्लेषण करें
इससे हमें पता रहेगा कि ऐसे क्षणिक आवेशो में कोई बड़ा निर्णय नहीं करना है, यदि कर लिया हो तो उसे बदलने में अपने अहंभाव को आड़े नहीं आने देना है तथा सामने वाले व्यक्ति ने ऐसा कर लिया हो तो उससे उस ग़लत निर्णय को बदलवाना है किन्तु उस बात को किसी भी स्थिति में अपने व उसके जीवन सहित पारस्परिक सम्बन्धों में अवरोध नहीं बनने देना है।
2. समताओं का विचार करें
जो प्रतिकूलताएँ नज़र आ रही हों अथवा विघ्न सामने आते लग रहे हों तो भी ‘अनुकूलताओं’ का विचार करें, ‘क्या अलग’ के बजाय ‘क्या समान’ अथवा ‘क्या अनुकूल’ पर ध्यान केन्द्रित करें तो आपको बहुत सारी अनुकूलताएँ व समानताएँ दिख जायेंगी.
हो सकता है कि आपके कई मूलोद्देष्य एकसमान हों। हो सकता है मार्ग भिन्न परन्तु लक्ष्य समान हों परन्तु अलग-अलग चलने के बजाय एक मार्ग चलें तो बहुत सारी ऊर्जाओं, संसाधनों, अनावश्यक परिश्रम व समय की बचत हो जायेगी एवं पूरी यात्रा न्यूनतम व्यवधानों व अधिकतम सहजता से सम्पन्न हो जायेगी। कुछ विषमताओं को पकड़कर उनमें उलझकर ढेरों समताओं की ओर साथ बढ़ने से क्यों पिछड़ना ?
3. सतत् प्रवाह को बनाये रखें
यदि जीवन में कोई समस्या आये अथवा कार्यालय अथवा निजी सम्बन्ध में व्यवधान दिखे तो उस विषय व परिस्थिति को पृथक् रखें, न कि उसे अपने सहज प्रवाह अथवा सम्बन्ध में विघ्न बनने दें।
अटकना या रुकना नहीं है, अवरोधों को दूर कर आगे बढ़ना है तथा यदि अवरोध दूर न भी हों तो भी समग्रता में बढ़ते रहना है, न कि सतत् प्रवाह में प्रश्न चिह्न लगाकर स्वयं अवरोध बन जाना है।
4. अनावश्यक व्यक्तियों, वस्तुओं, क्रियाओं व विषयों से बचें
प्रत्यक्ष रूप से कुसंगति न भी दिख रही हो तो भी दिनचर्या में सामने आ रही कई बातें प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से निर्जीव अथवा सजीव कुसंगतियों के रूप में हमारी सकारात्मक ऊर्जाओं का नाश कर रही होती हैं जिनसे हमें दूर रहना है, परिचितों के व्यर्थ आमंत्रणों, निरर्थक बैठकों को नकारें। मोबाइल की ‘धर्मसंगत आवश्यकता व ‘तार्किक प्रयोग-बाध्यता’ होने पर ही उसका प्रयोग करें एवं उसी कार्य तक सीमित रहकर वहाँ से हट जायें, और कुछ न विचारें।
5. पूर्वाग्रहों को तजें
‘ऐसा ही होता रहा है व होता रहेगा’ जैसे वाक्यों का विचार यदि कर रहे हों तो ध्यान रखें किस उस ‘ऐसा ही’ में क्या कुछ अनुचित है ? यदि नहीं तो फिर विरोध किस बात का? यदि कुछ अनुचित है तो उस अनुचित को सदा के लिये समूल उखाड़ फेंकें, हर परिवर्तन उचित दिषा में होना चाहिए, सही को बनाये रखना चाहिए।
6. हितैषी कौन
संसार-परिवार इत्यादि पारस्परिक स्वार्थों पर टिका चल रहा होता है जिसमें निःस्वार्थ हितचिंतकों का प्रायः अकाल रहता है। सच्चा मार्गदर्शक जगत में दुर्लभ है परन्तु यदि वह है तो निष्पक्षता से उसकी बात का विचार करें एवं सही निर्णय करें क्योंकि हो सकता है कि वह आपको निर्णय के लिये बाध्य न कर सके.
परन्तु ईश्वर की लीलाओं में कोई बुराई नहीं हो सकती एवं हर बार भगवान स्वयं आकर आपको अनुचित निर्णय करने से रोके अथवा स्वयं आपका हाथ पकड़कर आपसे उचित कर्म करवाये यह जरूरी नहीं, भगवान विभिन्न माध्यमों से आपको संकेत भेजता रहता है उन्हें सहर्ष स्वीकार करें एवं आत्मोद्धार करें।
7. ‘आ बैल मुझे मार’ न करें
अपनी इन्द्रियगोचरता (देखने व सुनने इत्यादि की परिधियों) में कोई नकारात्मक भाव न हो यह ध्यान रखें, इंटीरियल में कटे पेड़ों अथवा मरुस्थल के चित्रों के बजाय वन में चरते हिरणों, चहकते पक्षियों के चित्र लगायें।
शहद, रेशम व हिंसक अथवा किसी प्रकार से निरर्थक वस्तुओं, व्यक्तियों व दृष्यों इत्यादि से सर्वथा दूरी बरतें। मन परमात्मा के सच्चे अंष जैसे स्वच्छ रखें जहाँ केवल अच्छी बातों व सद्कर्मों के लिये स्थान हो, अन्य किसी के भी लिये नहीं, फिर चाहे वह आपका तथाकथित प्रिय परिजन ही क्यों न हो।
8. मन में मैल न जमायें
विषय व बात जो भी, अतीत से अब तक जो भी होता रहा हो, सर्वप्रथम तो औचित्य का विचार अवष्य करें तथा दिखने वाले भौतिक भाव यदि प्रतिकूल ही क्यों न प्रतीत हो रहे हों परन्तु फिर भी मूल भावों पर ज़ोर दें कि वे ही सही व औचित्यपूर्ण हो. अतः किसी विषय को मैल के रूप में न जमने दें.
अन्यथा बड़ी-बड़ी पुनीत योजनाएँ इस संचित मैल के कारण धूल-धुसरित होती देखी गयी हैं तथा यदि मैल जम भी गया हो तो उसे साफ कर दें क्योंकि मानव-मन की विशेषता है कि इसमें कुछ भी भरा व इससे कुछ भी निकाला जा सकता है, यह शरीर नहीं जिसमें रिकवरी की गारंटी न हो।
9. अहं छोड़ औचित्य विचारें
‘मैं’, ‘मेरापन’ व ‘मैं-तुम’ जैसे भावों को कभी हावी न होने दें, मुँह फुलाकर दूरी न बढ़ायें. चर्चा का प्रयोजन व आपका हर कदम उचित व अद्वैत् की ओर हो, दरार अथवा मनमुटाव बनाये रखने व बढ़ाने की ओर नहीं।
इस परमसत्य को हृदंयगम करते हुए चलें कि हम सभी उस एक अद्वैत् परमात्मा के ही अंश है। अन्तर तो किसी न किसी विषय में मतभेद के रूप में विष के समान यदि दिखता है उस विष को उसी विषय तक सीमित रखा जा सकता है व सीमित रखा जाना चाहिए, उस मतभेद अथवा असहमति को समग्रता पर प्रभावी नहीं होने देना है.
मैं ही क्यों हर बार झुकूँ अथवा हर बात मानूँ ?’ जैसे मनोभावों से अहं और मजबूत हो जाता है जिससे उत्थान का मार्ग अवरुद्ध होने लगता है एवं सब बिगड़ने की कगार पर जा सकता है, अत: निष्पक्षता से विचार करें कि क्या वास्तव में सार्थक व सकारात्मक अथवा अधिक सार्थक अथवा अधिक सकारात्मक है उस दिशा में बढ़ें फिर चाहे वह निर्णय आपके शत्रु (जिसे आप अपना शत्रु समझते हों अथवा जो आप को शत्रु समझता हो) का ही क्यों न हो।
अहं के वशीभूत होकर अपनों से सम्बन्ध तक लोग ख़राब कर डालते हैं परन्तु निन्दक विरोधियों तक के बारे में कहा गया है – ” निन्दक नियरे राखिए आँगन कुटी छबाय, बिन पानी साबुन बिना निर्मल करे सुभाय “।
‘मैं-तुम’ का द्वैत् बीच में न लाते हुए यही विचारा जाये कि कौन अथवा कौन-सा विषय वास्तव में उचित ! इस प्रकार न द्वैताभास होगा, न विरोध होगा, न विघ्न आयेगा. बस मन में घर कर गयी कड़वाहटें मिटेंगी व पवित्र उज्ज्वल मनोयोग से समुचित दिशा में अग्रसर होंगे जैसा कि होना भी चाहिए.
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