महर्षि दधीचि की कथा व जीवनी | Saint Dadhich Life Story In Hindi
संसार में समस्त प्राणी अपने लिए जीते है. सभी अपना भला चाहते है लेकिन कुछ व्यक्तित्व ऐसे भी होते है जो परोपकार हेतु अपने हितो का बलिदान कर देते है. हमारे देश में ऐसे अनेक पुरुष सुर नारियां हुई है, जिन्होंने दूसरो की सहायता और भलाई के लिए स्वयं कष्ट सहे है.
ऐसे ही महान परोपकारी पुरुषो में महर्षि दधीचि का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है. महर्षि दधीचि बड़े ज्ञानी थे. उनकी विद्वता की प्रसिद्धि देश के कोने – कोने तक फैली थी. दूर – दूर से विद्यार्थी उनके यहाँ विद्या अध्ययन के लिए आते थे. वे सज्जन, दयालु व उदार थे तथा सभी से प्रेम का व्यवहार करते थे.
महर्षि दधीचि नैमिषारण्य सीतापुर, उत्तर प्रदेश के घंने जंगलो के मध्य आश्रम बना कर रहते थे. उन्ही दिनों देवताओ और असुरो में लड़ाई छिड़ गयी. देवता धर्म का राज्य बनाये रखने का प्रयास कर रहे थे, जिससे लोगो की भलाई व हित होता रहे. जबकि असुरो के कार्य व व्यवहार ठीक नहीं थे. वे पापाचारी थे. लोगो को तरह – तरह से सताया करते थे.
वह अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए देवताओ से लड़ रहे थे. देवताओ को इससे बड़ी चिंता हुई. देवताओ के हार जाने का अर्थ था असुरो का राज स्थापित हो जाना. वह पूरी शक्ति से लड़ाई लड़ रहे थे. बहुत दिनों से यह लड़ाई चल रही थी. देवताओ ने असुरो को हराने के अनेक प्रयत्न किये किन्तु सफल नहीं हुए.
हताश देवतागण अपने राजा इन्द्र के पास गये और बोले ‘ राजन ! हमें युद्ध में सफलता के आसार नहीं दिखाई पड़ते क्यों न इस विषय में ब्रह्मा जी से कोई उपाय पूछे ? इन्द्र देवताओ की सलाह मानकर बह्मा जी के पास गये.
इन्द्र ने उन्हें चिंता से अवगत कराया. ब्रह्मा बोले – हे देवराज ! त्याग में इतनी शक्ति होती है कि उसके बल पर किसी भी असंभव कार्य को संभव बनाया जा सकता है.
लेकिन दुःख है कि इस समय आपमें से कोई भी इस मार्ग पर नहीं चल रहा है. ब्रह्मा जी की बातें सुनकर देवराज इन्द्र चिंतित हो गये. वे बोले- फिर क्या होगा ? श्रीमान ! क्या यह सृष्टि असुरो के हाथ चली जाएगी ? अगर ऐसा हुआ तो बड़ा अनर्थ होगा.
ब्रह्मा ने कहा- आप निराश न हो ! असुरो पर विजय पाने का एक उपाय है, यदि आप प्रयास करे तो निश्चय ही देवताओ की जीत होगी.
इन्द्र ने उतावले होते हुए पूछा- श्रीमान ! शीघ्र उपाय बताएं हम हर संभव प्रयास करेंगे. ब्रह्मा ने बताया- नैमिषारण्य वन में एक तपस्वी ताप कर रहे है. उनका नाम दधीचि है.
उन्होंने तपस्या और साधना के बल पर अपने अन्दर अपार शक्ति जूटा ली है. यदि उनकी अस्थियो से बने अस्त्रों का प्रयोग आप लोग युद्ध में करे तो असुर निश्चित ही परास्त होंगे.
इन्द्र ने कहा – किन्तु, वे तो जीवित है ! उनकी अस्थियाँ भला हमें कैसे मिल सकती है ? ब्रह्मा ने कहा- मेरे पास जो उपाय था, मैंने आपको बता दिया. शेष समस्याओ का समाधान स्वयं महर्षि दधीचि ही कर सकते है ?
महर्षि दधीचि को इस युद्ध की जानकारी थी. वे चाहते थे की युद्ध शांत हो. सदा शांति चाहने वाले आश्रम वासी लड़ाई – झगड़े से दुखी होते है. उन्हें आश्चर्य भी होता था कि लोग एक – दूसरे से क्यों लड़ते है ?
महर्षि दधीचि को चिंता थी कि असुरो के जीतने से अत्याचार और अनीति का बोल – बाला हो जायेगा.
देवराज इन्द्र झिझकते हुए महर्षि दधीचि के आश्रम पहुंचे. महर्षि उस समय ध्यानावस्था में थे. इन्द्र उनके सामने हाथ जोड़कर याचक की मुद्रा में खड़े हो गये. ध्यान भंग होने पर उन्होंने इन्द्र को बैठने के लिए कहा, फिर उनसे पूछा- कहिये देव राज ! कैसे आना हुआ ? इन्द्र बोले- महर्षि क्षमा करे, मैंने आपके ध्यान में बाधा पहुंचाई.
महर्षि आपको ज्ञात होगा, इस समय देवताओ पर असुरो ने चढ़ाई की हुई है. वे तरह – तरह के अत्याचार कर रहे है. उनका सेनापति वृत्रासुर बहुत ही क्रूर और अत्याचारी है, उससे देवता हार रहे है.
महर्षि दधीचि ने कहा- मेरी भी चिंता का यही विषय है, आप ब्रह्मा जी से बात क्यों नहीं करते ?
इंद्र ने कहा – मैं उनसे बात कर चूका हूँ. उन्होंने उपाय भी बताया है किन्तु…….? किन्तु ….किन्तु क्या ? देवराज ! आप रुक क्यों गये ? साफ़ – साफ़ बताइए. मेरे प्राणों की भी जरुरत होगी तो भी मैं सहर्ष तैयार हूँ, विजय देवताओ की ही होनी चाहिए.
महर्षि ने जब यह कहा तो इन्द्र ने कहा- हे महर्षि ! ब्रह्मा जी ने बताया है की आपकी अस्थियो से अस्त्र बनाया जाए तो वह वज्र के समान होगा. वृत्रासुर को मारने हेतु ऐसे ही व्रजास्त्र की आवश्यकता है.
इन्द्र की बात सुनते ही महर्षि दधीचि का चेहरा कांतिमय हो उठा. उन्होंने सोचा में धन्य हो गया. मेरा शरीर भले कार्य के लिए प्रयुक्त होगा. उनका रोम – रोम पुलकित हो गया.
प्रसन्नतापूर्वक महर्षि दधीचि बोले- देवराज आपकी इच्छा अवश्य पूरी होगी. मेरे लिए इससे ज्यादा गौरव की बात और क्या होगी ? आप निश्चय ही मेरी अस्थियो से वज्र बनवाएं और असुरो का विनाश कर चारो ओर शांति स्थापित करे.
दधीचि ने भय व चिंता से मुक्त होकर अपने नेत्र बंद कर लिए. उन्होंने योग बल से अपने प्राणों को शरीर से अलग कर लिया. उनका शरीर निर्जीव हो गया. देवराज इन्द्र आदर से उनके मृत शरीर को प्रणाम कर अपने साथ ले आये. महर्षि की अस्थियो से वज्र बना, जिसके प्रहार से वृत्रासुर मारा गया. असुर पराजित हुए और देवताओ की जीत हुई.
महर्षि दधीचि को उनके त्याग के लिए आज भी लोग श्रद्धा से याद करते है. नैमिषारण्य में प्रतिवर्ष फागुन माह में उनकी स्मृति में मेले का आयोजन होता है. यह मेला महर्षि के त्याग और मानव सेवा के भावो की याद दिलाता है.
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ripeshpandya says
aur dadhichi rusi ka aasram u.p me nai par gujrat me ahemadabad me jahapar gandi aashram hai vaha par tha…..
Surendra Mahara says
राज कुमार जी हम आपकी यह जानकारी अपने पोस्ट पर जल्द ही अपडेट करेंगे.
Raj kumar gautam says
Sir Maharishi Dafhichi ke vajra ka naam Tejwaan tha . par iss page pr kahi bhi iska wardan nhi h
Kya karad ho skta h