किसान के हम पर दर्जनभर एहसान Indian Farmer Essay in Hindi
Table of Contents
- किसान के हम पर दर्जनभर एहसान Indian Farmer Essay in Hindi
- Indian Farmer Essay in Hindi
- 1. स्वयं कर्ज लेकर भी पूरा करे फ़र्ज़ –
- 2. मासिक आमदनी –
- 3. मूलभूत सुविधाओं से दूरी –
- 4. परिजनों से दूर रहने को भी मजदूर –
- 5. पलायन –
- 6. मौसमी मार –
- 7. बँजर होती धरती –
- 8. विषैला जीवन –
- 9. अन्नदाता स्वयं कुपोषित –
- 10. प्रतिकूलताओं में भी पशुपालन –
- 11. बेचारा किसान बिचैलियों से परेशान –
- 12. न दिन में चैन, न रात को सुकून –
- Indian Farmer Essay in Hindi
Indian Farmer Essay in Hindi
भारत सहित बहुत सारे देशो की अर्थव्यवस्था (Economy) कृषि-प्रधान है, भारत में किसानों का महत्त्व (Importance Of Farmers) समझना और अधिक आवश्यक हो जाता है कि क्योंकि तेजी से बढ़ायी जा रही जनसंख्या (Population) की खुराक का प्रबन्ध इन्हीं के हाथों है, अबकी बार थाली में खाना छोड़ने से पहले विचार कर लें कि यह सच में किसानों के ख़ून-पसीने की कमायी हो सकती है। यहाँ इस बार हम उन कारणों को दर्शा रहे हैं जिनके लिये हम सब किसानों के कर्जदार हैं.
Indian Farmer Essay in Hindi
1. स्वयं कर्ज लेकर भी पूरा करे फ़र्ज़ –
किसानों की आत्महत्या के किस्से भारत में किसने नहीं सुने होंगे, कई बार ऐसे हालात बन जाते हैं कि लागत तक निकालनी कठिन हो जाती है, दूसरों के भोजन की व्यवस्था करने वाला अपनी गृहस्थी को चलाने के लिये परायों से कर्ज लेने मजबूर हो जाता है अथवा परायों का पेट भरने की ख़ातिर अपना व अपनों का पेट काटकर परिवार पालता है।
सहायक समझे जाने वाले बैंक हों या साहूकार सबकी नज़र गिरवी ले जाने के लिये ज़मीन व जेवरों पर होती है कि किसान यदि किसी भी कारण कर्ज समय पर न चुका पाये तो हम तो सूदसमेत छीनने के लिये उसकी हर सम्पत्ति की नीलामी करके उसे विपत्ति में डाल ही देंगे।
2. मासिक आमदनी –
विभिन्न सर्वेक्षणों में ऐसा आकलन है कि एक औसत भारतीय किसान की मासिक आय 5000 से 10,000 रुपयों के मध्य आती है। इतने में शायद वह अपना घर तो बचा ले परन्तु आगामी फसलें उपजाने के लिये शासकीय अनुदान आदि पर निर्भर होना पड़ता है।
3. मूलभूत सुविधाओं से दूरी –
शहरों में सिरतोड़ स्पर्धा, भूखण्ड की घटती उपलब्धता व इसकी महँगाई ऐसे कारक हैं जिनसे किसान को सपरिवार स्वयं ऐसे गाँवों में रहना पड़ता है जहाँ शहर जितनी समीपता में अत्याधुनिक चिकित्सालय इत्यादि की सुविधाएँ प्रायः नहीं दिखतीं।
4. परिजनों से दूर रहने को भी मजदूर –
शिक्षा के लिये किसान स्वयं ही बच्चों को शहर भेज देते हैं व अन्य रोज़गारों की तलाश में बड़े बच्चे स्वयं शहरों में रह जाते हैं, इस प्रकार आशंका रहती है कि किसानों का बुढ़ापा अपने ही बच्चों से दूर-दूर गुजर जाता है।
5. पलायन –
भारत का एक बड़ा भाग अब भी वर्षा-आधारित खेती पर आधारित है, अन्य मौसमों में ज़िन्दगी की गुज़र-बसर करने के लिये ग्रामीणजनों को खेती-किसानी से अलग शहरी ओर प्रवास करना होता है जहाँ वे शहरी अमीरों के कर्मचारी बन जाते हैं एवं भीड़ में सीमित पारिश्रमिक में जैसे-तैसे निर्वाह कर पाते हैं।
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6. मौसमी मार –
खुले आकाश के नीचे उन्मुक्त खेत को विभिन्न नैसर्गिक उठा-पटकों से बचाना अपने आप में बड़ा कठिन कार्य है, कभी ओलावृष्टि, कभी अल्पवृष्टि तो कभी अतिवृष्टि से जूझना पड़ सकता है. यदि यह सब ठीक-ठाक रहा तो सम्भव है कि रही-सही कसर कीटादि प्रकोपों में निकल जाये। खेतरूपी बड़े इलाके में परिस्थितियों के प्रभावों का पूर्वानुमान व संतुलन साधना किसी के भी लिये टेढ़ी खीर साबित होता है।
7. बँजर होती धरती –
जंगल काटना ग़लत है किन्तु खेती के क्षेत्रविस्तार के लिये वनों को मिटाने का दोष केवल किसानों के सिर नहीं मढ़ा जा सकता, सरकारें व जनसंख्या भी जवाबदेह हैं। मरुस्थलीकरण हो या खेती के कारण भूमि का क्रमशः अनुत्पादक हो जाना. इन सब समस्याओं के लिये उत्तरदायी भी मुख्यतः किसानों को ठहराया जाता है एवं इनका मुख्य भुक्तभोगी वह स्पष्ट रूप से स्वयं भी है इसे भी ध्यान रखें।
8. विषैला जीवन –
रासायनिक कीटनाशकों व उर्वरकों के अंश खाद्यान्नों में तो आते ही हैं परन्तु स्मरण रखना चाहिए कि भूजल व मिट्टी के अतिप्रदूषित होते जाने में भी ये कृषि-रसायन ज़िम्मेदार हैं। ऐसे माहौल में किसानों को जीना, रहना व कार्य करना पड़ता है.
कभी-कभी तो तमाम सावधानियों के बीच भी ऐसी घटनाएँ घट जाती हैं कि कीटनाशक छिड़कने के दौरान किसान बेहोश हो गया हो, कृषि रसायनों से प्रदूषित जल व वायु के सेवन के ढेरों प्रभाव भी पहले तो किसानों पर ही पड़ते हैं।
9. अन्नदाता स्वयं कुपोषित –
भारत की कैसी विडम्बना है कि जहाँ एक ओर किसानों को अन्नदाता कहते हैं वहीं दूसरी ओर मुख्य रूप से ग्रामीण किसानों के घर के बच्चे कुपोषित निकलते हैं।
10. प्रतिकूलताओं में भी पशुपालन –
भयावह जनसंख्या को अनाजादि खिलाने के साथ उन्हें दूध पिलाने की ज़िम्मेवारी भी मुख्य रूप से किसानों ही के सिर है। प्रायः किसान ही अपने खेत के एक भाग में गाय-भैंस या बकरी पालन करके दूध बेचता है।
11. बेचारा किसान बिचैलियों से परेशान –
क्या कारण है कि नागरिकों को 100 रुपया किलो मिलने वाली सब्जी किसान द्वारा व्यापारियों को 20 रुपया में बेचनी पड़ती है ? इतना भारी अन्तराल ? सक्रिय दलाल किसानों का लाभ घटाने की फ़िराक में जहाँ-तहाँ बैठे मिल जाते हैं, सीधे ग्राहकों तक फसल पहुँचाने में लगने वाले श्रम से बचने के प्रयास में किसान बिचैलियों के हाथों एक प्रकार से जान-बूझकर ठगा जाता है।
शीघ्र ख़राब हो जाने वाली उपज (जैसे हरी सब्जियों) के मामले में तो स्थिति इतनी भयंकर हो सकती है कि माल सड़ जाने की आशंका के चलते इक्कीसवीं शताब्दी में भी 2 रुपये प्रतिकिलो के हिसाब से फसल बेचनी पड़ जाये। उस Kisan के स्थान पर स्वयं को रखकर देखें तो क्या आप अपनी स्थिति की कल्पना भी कर पायेंगे ? नहीं ! सदमा सहन करना भी भारी पड़ सकता है।
12. न दिन में चैन, न रात को सुकून –
दिनभर आसपास के पालतू पशुओं से बचाव (Pet protection), निदाई-गुड़ाई इत्यादि रख-रखाव में बीतने के बाद रात को नींद के बजाय निगरानी में लगाना पड़ता है, सब इतने पर्याप्त अमीर नहीं होते जो कर्मचारी रख सकें एवं कर्मचारी रखना अपने आप में जोख़िमपूर्ण हो सकता है कि कहीं वह स्वयं न सो जाये अथवा विरोधी पड़ौसियों के हाथों न बिक जाये.
रातभर वन्यजीवों से सुरक्षा के लिये चैकसी, यदि बिजली रात को आनी हो तो 1 बजे भी हाँड़ कँपाती ठण्ड में पानी सींचने निकलना इतना धैर्य, इतनी जीवटता एवं सहनशीलता वाला इन्सान होता है हमारा पालक किसान।
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