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संस्कृत के 20 श्लोक जो हमें जीना सिखाते हैं

January 10, 2021 By Surendra Mahara 1 Comment

संस्कृत के 20 श्लोक जो हमें जीना सिखाते हैं 20 Sanskrit Shlokas With Meaning in Hindi

20 Sanskrit Shlokas With Meaning in Hindi

भारतीय पुरातन साहित्य पथ प्रदर्शक वेद-पुराणों से भरा-पूरा है. यहाँ ऐसे चयनित 20 श्लोकों को अर्थ व सीख सहित दर्शाया जा रहा है जिनसे संकेत ग्रहण करके हम अपना जीवन सही दिशा की ओर मोड़ सकते हैं.

20 Sanskrit Shlokas With Meaning in Hindi

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Sanskrit Shlokas

1. येषां न विद्या न तपो न दानं,
ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।
ते मत्र्यलोके भुवि भारभूताः,
मनुष्य रूपेण मृगाष्चरन्ति।।

अर्थात – जो विद्या, तप, दान, ज्ञान, चरित्र, गुण व धर्म से रहित हैं वे तो धरा पर भार रूप ही हैं एवं मानव रूप में वास्तव में हिरण जैसे बस चर रहे हैं।

सीख – जीवन में खाने-सोने के सिवाय कुछ सार्थकता भी होनी चाहिए। आपका जीवन सब के लिये मंगलकारी हो।

2. विद्या कर्म च शौचं च ज्ञानं च बहुविस्तरम्।
अर्थार्थमनुसार्यन्ते सिद्धार्थष्च विमुच्यते।।

अर्थात – अर्थ यानी परमात्मा की प्राप्ति के ही लिये विद्या, कर्म, पवित्रता व अत्यन्त विस्तृत ज्ञान का आश्रय ग्रहण किया जाता है। जब कार्य की सिद्धि यानी परमात्म प्राप्ति हो जाती है तब मनुष्य मुक्त होता है।

सीख – व्यक्ति तो कुछ ग्रहण करे प्रभु प्राप्ति के ही लिये करे, तभी उसके ये अर्जन-उपार्जन उपयोगी होंगे।

3. सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयात्मषक्त्या
वृक्षान् सरीसृपपशून् खगदंषमत्स्यान्।
तैस्तैरतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय
ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः।।

अर्थात् – भगवान् ने अपनी अचिंत्य शक्ति माया से पेड़-पौधे, सरीसृप यानि रेंगकर चलने वाले जन्तु, जैसे कि सर्प, मगरमच्छ इत्यादि, पशु-पक्षी, डाँस व मत्स्यादि अनेक प्रकार की योनियाँ रचीं परन्तु उनसे उन्हें संतोष न हुआ तो उन्होंने मनुष्य शरीर की रचना की जो कि ऐसी बुद्धि से युक्त है जो ब्रह्म का साक्षात्कार करने में समर्थ है। इसकी रचना करके वे अत्यन्त आनन्दित हुए।

सीख – मानव शरीर मिला है तो इसे मोक्ष हेतु अग्रसर होने में सदुपयोग करें।

4. कामो लोभस्तथा क्रोधो दम्भष्चत्वार इत्यमी।
महाद्वाराणि वीचीनां तस्मादेतांस्तु वर्जयेत्।।

अर्थात् – काम, लोभ, क्रोध व दम्भ ये नरक के चार महाद्वार हैं. इस कारण इनको त्याग देना चाहिए।

सीख – काम, लोभ, क्रोध व दम्भ का सर्वथा त्यागकर निर्मल जीवन जियें।

5. जायात्मजार्थपषुभृत्यगृहाप्तवर्गान्
पुष्णाति यत्प्रियचिकीर्षुतया वितत्वन्।
स्वान्ते सकृच्छ्रमवरुद्धधनः स देहः
सृष्ट्वास्य बीजमवसीदति वृक्षधर्मा।।

अर्थात् – जीव जिस शरीर का प्रिय करने के ही लिये अनेक प्रकार की इच्छाएँ व कर्म करता है तथा स्त्री-पुत्र, धन-सम्पत्ति, गज-अश्व, सेवक, घर-द्वार व बन्धु-बान्धवों को विस्तारित करते हुए उनके पालन-पोषण में लगा रहता है, बड़ी-बड़ी कठिनताओं को सहकर धन संचय करता है, आयु पूर्ति होने पर वही शरीर स्वयं तो नष्ट होता ही है व वृक्ष के समान दूसरे शरीर के लिये बीज बोकर उसके लिये भी दुःख की व्यवस्था कर जाता है।

सीख – किसी नवीन कर्मफल शृंखला में न उलझते हुए केवल परमार्थ प्राप्ति की दिशा में तन-मन-धन अर्पित कर दे.

6. अर्जयित्वाखिलानर्थान् भोगानाप्नोति पुष्कलान्।
न हि सर्वपरित्यागमन्तरेण सुखी भवेत्।।

अर्थात् – जगत् से सभी पदार्थों का उपार्जन करके अधिक से अधिक भोग पाया जा सकता है किन्तु सबका परित्याग किये बिना कोई सुखी नहीं हो सकता।

सीख – यह कर लूँ, वह भी कर लूँ, यह पा लूँ, वह भी पा लूँ, इस प्रकार कामनाओं से कुचक्र में न पड़ें। प्रभु कृपा से जितना मिले उतने में संतुष्ट रहें।

7. हा हन्त जन्मैतदपि विफलं यातमेव हि।
एवं जन्मान्तरमपि विफलं जायते तथा।।
निष्कृतिर्विद्यते नैव विषयाननुसेविनाम्।
तस्मादात्मविचारेण त्यक्त्वा वैषयिकं सुखम्।।
शाष्वतैष्वर्यमन्विच्छन्मदर्चनपरो भवेत्।
तदैव जायते भक्तिरियं ब्रह्मणि निष्चला।।

अर्थात् – कितने दुर्भाग्य खेद की बात है कि यह जन्म भी व्यर्थ चला गया व इसी प्रकार दूसरा जन्म भी व्यर्थ बीत जाता है। विषय-भोगों का सेवन करने वाले का उद्धार नहीं होता। इसलिये आत्म तत्त्व का विचार करें व वासनात्मक सुख का परित्याग करके शाश्वत ऐष्वर्य (प्रभुप्राप्ति) की प्राप्ति की अभिलाषा से मेरी (प्रभु) की उपासना में तत्पर रहना चाहिए तभी ब्रह्म से स्थिर सम्बन्ध बनता है।

सीख – अबकी बार जो मानवजन्म मिला है इसमें और न भटकें, इसी जन्म सब कुछ त्याग प्रभु को पा लें।

8. स्वर्गादिकामः कृत्वापि पुण्यं कर्मविधानतः।
प्राप्य स्वर्गं पतत्याषु भूयः कर्म प्रचोदितम्।।
तस्मात्सत्संगमं कृत्वा विद्याभ्यासपरायणः।
विमुक्तसंगः परमं सुखमिच्छेद्विचक्षणः।।

अर्थात् – स्वर्गादि की प्राप्ति की कामना से पुण्यकर्म करके स्वर्ग प्राप्त करने के उपरान्त भी शीघ्र ही कर्म प्रेरित होकर पुनः मृत्यु लोक में गिरना पड़ता है। अतः विद्वान् वह है जो आकर्षण का त्याग करे, विद्याभ्यास करते रहे एवं सत्संग करके परमसुख की अभिलाषा रखे।

सीख – सब प्रभु को अर्पित करते हुए निष्काम सद्कर्म ही करें, वेद-शास्त्रों का पठन-पाठन करें. सुसंगति ग्रहण करें।

9. तस्मादात्माक्षरः शुद्धो नित्यः सर्वगतोअव्ययः।
उपासितव्यो मन्तव्यः श्रोतव्यष्च मुमुक्षुभिः।।

अर्थात् – अतः मोक्षाभिलाषी जनों को अक्षर, शुद्ध, सनातन, सर्वव्यापी, अव्यय आत्म तत्त्व का ही चिन्तन, मनन, श्रवण व अनुसन्धान करना चाहिए।

सीख – नाशवान संसार के पीछे क्यों भागना ?

10. त्यजन्ते दुःखमर्था हि पालने न च ते सुखाः।
दुःखेन चाधिगम्यन्ते नाषमेषां न चिन्तयेत्।।

अर्थात् – धन व्यय करते समय बड़ा दुःख होता है। उसकी रक्षा में भी सुख नहीं है व उसकी प्राप्ति में भी बड़ा कष्ट होता है, इसलिये धन को प्रत्येक अवस्था में दुःखदायक समझो व उसके नष्ट होने पर चिन्ता नहीं करनी चाहिए।

सीख – सम्पत्ति, प्रतिष्ठादि नश्वर वस्तुओं में मानव-जीवन का समय व ध्यान न खपाओ।

11. अनित्यं यौवनं रूपं जीवितं द्रव्यसंचयः।
आरोग्य प्रियसंवासो गृध्येत् तत्र न पण्डितः।।

अर्थात् – रूप, यौवन, जीवन, धन-संग्रह, आरोग्य एवं प्रियजनों का साथ ये सब अनित्य हैं। विद्वान् पुरुष को इनमें आसक्त नहीं होना चाहिए।

सीख – अनिश्चित व अनित्य धन-परिवार आदि में ऊर्जा लगाने के बजाय सुनिश्चित व नित्य परमार्थ-साधन करें।

12. भैषज्यमेतद् दुःखस्य यदेतन्नानुचिन्तयेत्।
चिन्त्यमानं हि न व्येति भूयष्चापि प्रवर्द्धते।।

अर्थात् – दुःख दूर करने की सर्वश्रेष्ठ औषधि यही है कि उसके बारे में बारम्बार सोच-विचार न किया जाये, अन्यथा वह घटेगा नहीं बल्कि बढ़ता ही जाता है।

सीख – कटुता, कष्ट व बैर जैसी बातों को मन से पकड़े रहने से किसी को कोई लाभ नहीं बल्कि सबको हानि ही हानि होती है।

13. दोषदर्षी भवेत् तत्र यत्र रागः प्रवर्तते।
अनिष्टवर्द्धितं पश्येत् तथा क्षिप्रं विरज्यते।।

अर्थात् – जहाँ मन का आकर्षण होने बढ़ने लगे वहाँ दोष दृष्टि करनी चाहिए मतलब उस विषय के दोषों को देख लेना चाहिए व उस विषय को अनिष्टवर्द्धक समझो (जैसा कि वह वास्तव में होता है. ऐसा करने पर शीघ्र ही वैराग्य हो जाता है।

सीख – घर-परिवार, समाज-सम्पत्ति इत्यादि सब कुछ नश्वर व तुच्छ है, अत एव इन सबसे उबरकर शाश्वत तत्त्व की ओर बढ़ो।

14. यदा सर्वं परित्यज्य गन्तव्यमवषेन ते।
अनर्थे किं प्रसक्तस्त्वं स्वमर्थं नानुतिष्ठसि।।

अर्थात्  – जब सबकुछ छोड़कर यहाँ से तुम्हें बाध्य होकर चल ही देना है तब इस अनर्थमय जगत में क्यों आसक्त हो रहे हो ? अपने वास्तविक अर्थ- मोक्ष का प्रयत्न क्यों नहीं करते हो ?

सीख – क्षण-भंगुर संसारी क्रियाओं में और न उलझो, इनसे परे उठकर मुक्ति की चेष्टाएँ करो।

15. कुटुम्बं पुत्रदारांष्च शरीरं संचयाष्च ये।
पारक्यमध्रुवं सर्वं किं स्वं सुकृतदुष्कृतम्।।

अर्थात् – संसार में परिवार, पत्नी, पुत्र, शरीर व संग्रह सब कुछ पराया है; सब नश्वर है, इसमें अपना क्या है ? मात्र पाप व पुण्य।

सीख – पापी विचारों को त्यागें एवं पराये विषयों व मृगमरीचिका से ऊपर उठकर निःस्वार्थ सद्कर्म की ओर अग्रसर होए.

16. निवृत्तिः कर्मणः पापात् सततं पुण्यषीलता।
सद्वृत्तिः समुदाचारः श्रेय एतदनुत्तमम्।।

अर्थात् – पापकर्मों से दूर रहना, सदा पुण्यकर्मों यानि निष्कामभाव से अनुष्ठान करना, सज्जनो चित् व्यवहार एवं सदाचार-पालन करना यह कल्याण-मार्ग है।

सीख – करने योग्य कर्म ही करो, न करने योग्य कभी नहीं।

17. आसनं शयनं यानपरिधानगृहादिकम्।
वांछत्यहोअतिमोहेन सुस्थिरं स्वयमस्थिरः।।

अर्थात् – अहो ! कितना आश्चर्यपूर्ण है कि मानव अत्यन्त मोह के कारण स्वयं अस्थिर चित्त होकर आसन (बैठने की सुखद व्यवस्था), बिस्तर, वाहन, परिधानव गृहादि भोगों को सुस्थिर मानकर प्राप्त करना चाहता है।

सीख – जो स्थायी है ही नहीं उसके लोभ-मोह में क्यों पड़े हो !

यहाँ पढ़ें – 25 प्रसिद्द संस्कृत श्लोकों का संग्रह

18. सर्वसाम्यमनायासं सत्यवाक्यं च भारत।
निर्वेदष्चाविधित्सा च यस्य स्यात् स सुखी नरः।।

अर्थात् – सबमें समता का भाव, व्यर्थ परिश्रम का अभाव, सत्य भाषण, संसार से वैराग्य एवं कर्मासक्ति का अभाव ये पाँच जिस मनुष्य में होते हैं वह सुखी होता है।

सीख – हर प्रकार के स्वार्थ को तजकर परमार्थ में लगकर सादगी से जीवन-निर्वाह करते हुए परमात्मा को प्राप्त करें।

19. विमलमतिरमत्सरः प्रषान्तष्षुचिचरितोअखिलसत्त्वमित्रभूतः।
प्रियहितवचनोअस्तमानमायो वसति सदा हृदि तस्य वासुदेवः।।

अर्थात् – जो व्यक्ति निर्मलचित्त, ईर्ष्याहीन, प्रशान्त, शुद्ध चरित्र, समस्त जीवों का सुहृद्, प्रिय व हितवादी हो तथा अभिमान व माया से रहित होता है उसके हृदय में भगवान वासुदेव सर्वदा विराजमान् रहते हैं।

सीख – सीधे-सरल-सच्चे मन वाले बनो तभी प्रभु के प्यारे कहलाओगे।

20. (यस्यां रात्र्यां व्यतीतायां न किंचिच्छुभमाचरेत्।)
तदैव वन्ध्यं दिवसमिति विद्याद् विचक्षणः।
अनवाप्तेषु कामेषु मृत्युरभ्येति मानवम्।।

अर्थात् – जिस रात्रि के बीतने पर भी मनुष्य ने कोई शुभ कर्म न किया हो उस दिन को विद्वान् पुरुष व्यर्थ ही गया समझे। मनुष्य की कामनाएँ पूर्ण नहीं होतीं कि मृत्यु आ पहुँचती है।

सीख – यथासम्भव अपने अधिकाधिक ध्यान व समय को सकारात्मकता में लगायें।

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Comments

  1. Mayur says

    January 10, 2021 at 4:43 pm

    Very Intersting Shloka I Like This

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