मेडिटेशन का महत्व व इससे होने वाले लाभ ! Yoga Meditation Benefits Importance In Hindi
Yoga Meditation Benefits Importance In Hindi
ध्यान क्या है ? (What Is Meditation)
तन-मन की समस्त क्रियाओं को संसार से हटाकर सम्पूर्ण आत्मा को भी परमात्मा में एकाग्र कर देना ही ध्यान है। नष्वरताओं से मन हटाकर ही उसे शाष्वत् में लगाया जा सकता है।
उस सम्पूर्ण व परिपूर्ण को पूर्णता से व पूर्णता में अपनाने के लिये शेष सब कुछ मन से भी एवं स्थायी रूप से छोड़ना जरुरी है तभी उस अद्वैत् परमात्मतत्त्व की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है, उससे संयुक्त हुआ जा सकता है।
‘एकोअहम् द्वितीयोनास्ति’ (प्रभु कहते हैं कि मैं एक हूँ, द्वितीय कोई है ही नहीं) तथा ‘तत्त्वमसि’ (वह तुम हो) अर्थात् परमात्मा एक ही है, हम सब उसी के अंश हैं जिनके रूपों में वही एक विद्यमान् है।
उस परमसत्ता से योग के लिये सांसारिक नष्वरताओं को भूलना होगा। इन्द्रियों को उनके विषयों से विरत् (दूर) करके मन-वचन-कर्म सबसे प्रभु को अर्पित हो जाना ध्यान है, इस ओर हमें योग ले जाता है, परमात्मा से जीवात्मा का योग।
Yoga Meditation Benefits Importance In Hindi
प्रत्येक इन्द्रिय को समस्त विषयों से परे कैसे उठायें (ताकि ध्यान उस सनातन परमतत्त्व में धरा जा सके) :
1. कर्ण :
संसार की बातों से ध्यान हटा केवल शाश्वत तत्व की बातें सुनें, सत्संग करें, अच्छी ही बातों का श्रवण करें।
2. नेत्र :
सुन्दर, मन को भटकाने व ध्यान प्रभु से दूर करने वाले विषयों से दूर चित्त को एकाग्र करने के लिये इष्ट की छवि को मन में बसायें, नेत्र बन्द करके ध्यान को भृकुटियों (भौंहों) के मध्य शिरोकेन्द्रभाग में एकाग्र करें। नज़र अनश्वर पर हो।
3. जिह्वा :
स्वाद के शौकीन बनने के बजाय सादे अन्न से भी भूख मिटाकर प्रसन्न रहने वाला बनें एवं इस जिह्वा से भगवद्नामोच्चारण करते रहें। पर निन्दा नहीं, प्रभु गुणगान में इसे लगायें। संसार में रस नहीं है, इस सत्य को स्वीकार कर लें।
4. नासिका :
कृत्रिम सुखद गंधों की चाह में झूमने के स्थान पर नासिका को अपने वश में रखें ताकि यह बस श्वास में संतुष्ट रहे व मन को अन्यत्र भटकने के बचाये।
5. त्वचा :
लोभ-मोह के स्पर्श व विलासिता से स्वयं के शरीर को भी दूर रख एकान्त व सीमित में संतोष की शरण लैवें। सुख-सुविधाओं से परे आत्मानन्द की खोज के लिये निकलें। उपरोक्त ज्ञानेन्द्रियाँ व उनको सही दिशा लगाने की बात हुई। अब बात करते हैं कर्मेन्द्रियों को उनके विषयों से दूर कर प्रभु में संयुक्त करने की.
6. पैर :
ये न तो व्यर्थ दिशाओं में भटकें, न ही सत्पथ से विचलित होवैं। कर कदम बस प्रभु की ओर हो, अपनी सम्पूर्णता की ओर। पैर चाहें नीचे हों परन्तु ये सिर नीचा होने, व्यक्ति के पतन का कारण बन सकते हैं। आलती-पालती मारकर अवस्था में ध्यान करना हितकारी रहता है।
7. हाथ :
मूलभूत आवश्यकता पूर्ति के बजाय किसी इच्छापूर्ति की ओर हाथ न बढ़ें, इच्छाओं के आकाश में संतोष रूपी मेघ नहीं हुआ करते। एक हाथ में गीता, दूजे में उसके क्रियान्वयन के लिये स्वमेव उपलब्ध संसाधन, बस और क्या चाहिए। हाथों को प्रभु के के लिये जोड़कर सब भगवद् अर्पित कर दें।
8. वाणी :
व्यर्थ के वाणी-विनोद, औपचारिक वार्तालाप, स्वार्थ-सीमित गतिविधियों इत्यादि से अपनी वाक्-ऊर्जा को बचायें। उसमें तो बस प्रभु के नाम की डोर व भक्ति का प्रवाह हो।
9. गुदा :
पेट व गुदा किसी प्रकार के सुख-संतोष नहीं बल्कि पाप के आगमन-द्वार होते हैं। गुदा व मैथुनांग ( शिष्न व योनि) ऐसी इन्द्रियाँ हैं जो कोई सद्कर्म करती ही नहीं, इसलिये इन्हें अवशेषी अथवा अनावश्यक इन्द्रियाँ कहना ठीक लगेगा क्योंकि ये दोनों ही या तो धर्म से ध्यान भटकाती हैं अथवा निरर्थकता की दिशा में उकसाती हैं।
10. मैथुनांग :
कामेच्छा पर विजय पायें, इस अंग को मन से निकाल फेंकें, यह वास्तव में मूत्रेन्द्रिय है आजीवन इस वास्तविकता को समझें और वैसे भी त्याज्य व उत्सर्जी को सिर-माथे नहीं लगाया जाता।
अब बात करते हैं विवाह की, पहले सोचकर अलग से लिख लें कि आपने विवाह क्यों किया, क्यों करना चाहते ? औचित्य, कारण, प्रयोजन इत्यादि ( कम से कम आधा पन्ना लिखकर ही इस आलेख को आगे पढ़ें )।
योग-ध्यानादि में उच्च स्तर पर पहुँचने के इच्छुक या तो देर-सबेर अथवा शीघ्र ही वानप्रस्थ हो जाते हैं अथवा संन्यासी, सर्वोत्तम तो ब्रह्मचारी होने का चयन कर लेते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि साधारण लोग या तो अपनी कामेच्छाओं की समाज संगत, परिवार संगत पूर्ति के लिये विवाह करते हैं अथवा सन्तान उत्पन्न करने के लिये, इन सबमें कोई सार्थकता नहीं होती.
कोई सकारात्मकता नहीं होती, ईश्वर सहित अवतारों व विशिष्ट व्यक्तियों ने तो किसी न किसी सर्वहितैषी पुनीत योजना के तहत विवाह किया था, जैसे कि प्रभु को बाल रूप में पाने।
शक्तिस्वरूपा सती के तपरूपीहठ (कि शिव को ही पतिरूप में पाना है) के कारण शिव को विवाह करना पड़ा, शक्ति के अगले अवतार पार्वती ने भी यह हठ किया एवं तारकासुर-वध के लिये भी गृहस्थ होना पड़ गया क्योंकि शिवपुत्र के हाथों ही तारकासुर को मरने का वरदान था। वास्तव में तो षिव शक्ति के मूलस्वरूप संग अर्द्धनारीश्वर रूप में एकान्त में समाधिस्थ अवस्था में प्रसन्न रहते थे।
प्रभु भक्त सन्तानें पालने, प्रभुलीलाओं में सहायक होने व अन्य आदर्षों की स्थापना के लिये भी जिस-जिसने विवाह किया उसका जीवन संकटकारी हो गया, कृष्ण, शिव, विष्णु जिनके भी परिवार व भविष्य को देखें उलझनों की भरमार मिलेगी।
ब्रह्मा द्वारा संतति-सृजन के निर्देश के बावजूद सनत्कुमारों ने तो सदैव बालक अवस्था में रहना स्वीकारा ताकि यौवनअवस्थाजनित इन्द्रियवेगों से जूझना न पड़े एवं भक्ति का विस्तार सरलता से किया जा सके।
अन्य इन्द्रियों को उनके विषयों से विरत् कर भगवान् में चित्त को एकाग्र करने के उपाय :
11. मन : पसन्द-नापसन्द से ऊपर उठें, प्रेय के बजाय श्रेय को चुनें।
12. बुद्धि : बुद्धि को ऐसी बनायें जो तर्कशीलता से अंधविश्वास को निर्मूल करे, धर्म-विरुद्ध न करें, नास्तिक न बनाये। श्रद्धा से परे व्यर्थ के तर्क कर भौतिकता में न उलझाये। उसी ज्ञान को अपनाये जो सीधे प्रभु तक ले जाये। उन्हीं को अनुभव करना चाहे जो सार्थक-सकारात्मक हों, नश्वर लक्ष्यों से परे ले जाये।
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deepak says
Valuable Content, Thanks For Sharing