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You are here: Home / शिक्षाप्रद कहानी / देवी दुर्गा के नौ रूप की सम्पूर्ण कहानी Devi Durga In Hindi

देवी दुर्गा के नौ रूप की सम्पूर्ण कहानी Devi Durga In Hindi

October 14, 2020 By Surendra Mahara Leave a Comment

देवी दुर्गा के नौ रूप की सम्पूर्ण कहानी Devi Durga Stories Navratri History In Hindi

Table of Contents

  • देवी दुर्गा के नौ रूप की सम्पूर्ण कहानी Devi Durga Stories Navratri History In Hindi
    • Devi Durga Stories Navratri History In Hindi
      • दश महाविद्या :
      • अधिक सार्थक नवरात्रि कैसे मनायें ?

Devi Durga Stories Navratri History In Hindi

शक्ति का दुर्गारूप दुर्गमासुर नामक भयानक असुर को मार गिराने के लिये धारण किया गया था, दुर्गमासुर-हंत्री दुर्गा माता ने उन वेदों को वापस लाकर ब्रह्मदेव को सौंप दिया जिनसे कि उस असुर ने छीन लिया था। दुर्गमासुर-वध के लिये आये उसे शक्तिरूप को इसी कारण ‘दुर्गा’कहा गया।

वास्तव में शक्ति का यह रूप अयोनिज है जो दुर्गमासुर को मारने व त्रिलोकी को तारने के लिये प्रकटा था, विश्व के जन-मानस में यही रूप सर्वाधिक पूजा जाता है.

नवरात्रि में अधिक पूजे जाने वाले शक्ति के नौ रूपों को नौ देवियों के संयुक्त रूप में नवदुर्गा कहा जाता है। विभिन्न चित्रों में मध्य में दुर्गा जी एवं दिषाओं में ये ही नौ देवियाँ प्रतिष्ठित दिखायी देती हैं. जिस क्रमांक में जिस देवी का नाम है विशेष रूप में उस तिथि को उस देवी का विशेष पूजन किया जाता है.

Devi Durga Stories Navratri History In Hindi

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Devi Durga

1. शैलपुत्री :  पर्वतराज हिमालय व मैनारानी की पुत्री पार्वती ही शैलपुत्री हैं, इससे पहला शक्ति-अवतार सती था जो दक्ष प्रजापति के यहाँ जन्मीं थीं।

2. ब्रह्मचारिणी : श्वेत परिधान से सुसज्जित ये मातेष्वरी सदैव रुद्राक्षमाला धारण किये रहती हैं। ये शरणागत के मन में वैराग्य का संचार कर उसे भवसागर के गहन अंधकार से मुक्त कर देती हैं।

3. चँद्रघण्टा : इनका घण्टनाद ज्ञानियों के लिये शीतल ज्ञानप्रदाता व दुष्टों के लिये मृत्युकारक होता है।

4. कूष्माण्डा : इनकी आठ भुजाएँ हैं, इनके मंद हास से ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई एवं इन्हें कूष्माण्ड (कुम्हड़ा) विषेष प्रिय है। पवित्र मन से इनकी पूजा करने वाला व्यक्ति भवसागर से तर जाता है।

5. स्कन्दमाता : चतुर्भुजाधारी स्कन्दमाता अपने एक हाथ से शडानन बाल कार्तिकेय को अपनी गोद में बिठाये हुए हैं।

6. कात्यायिनी : महर्षि कात्यायन द्वारा विषेष रूप से पूजित देवी। कात्यायन-पुत्री के रूप में जन्मी कात्यायिनी के दर्शन उस भक्त को सरलता से हो जाते हैं जो पूर्ण आत्मदान कर चुका हो। योगसाधना में आज्ञाचक्र अतीव महत्त्वपूर्ण है। इस चक्र में स्थित साधक माँ कात्यायिनी के चरणों में अपना सर्वस्व अर्पित कर देता है।

7. कालरात्रि : विद्युत् माला पहने हुए इनका विग्रह अति भयावह है, दुर्जनों का रक्त पीने ये सदा तत्पर रहती हैं परन्तु भक्तजन इन्हें शुभंकरी कहते हैं।

8. महागौरी : श्वेत वृषभ पर सवार महागौरी का रूप शंख व चँद्र के समान उज्ज्वल है। इनकी उपासना से भक्तों के कलुश धुल जाते हैं।

9. सिद्धिदात्री : अष्टसिद्धियों की प्रदात्री सिद्धिदात्री से सब सिद्धियाँ प्राप्त करने के उपरान्त भी भक्त की सभी कामनाएँ नष्ट हो जाती हैं एवं वह माता के चरणों से उठना ही नहीं चाहता। कितने नवरात्र ?

वर्ष में चार नवरात्र होते हैं जिनमें से शारदीय नवरात्र में जन-जन द्वारा नवदुर्गा का विशेष पूजन किया जाता है एवं भारत वर्ष में विविध स्थानों में एवं अन्य देशो में भी कुछ स्थानों में पण्डाल लगाकर अस्थायी झाँकियाँ लगायी जाती हैं जिनमें नौ दिनों के लिये दुर्गाजी अथवा अन्य शक्तिरूप की मूर्ति विधि-अनुरूप स्थापित व अन्त में विसर्जित की जाती है।

प्रकट नवरात्रि : चैत्र व अश्विन मास में प्रकट नवरात्रि होती हैं जिनमें से चैत्र नवरात्रि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से रामनवमी तक होती है। अश्विन मास की नवरात्रि को शारदीय नवरात्रि कहा जाता है जो दशहरे के एक दिन पूर्व तक रहती है।

गुप्त नवरात्रि : आषाढ़ व माघ मास में गुप्त नवरात्रि आती है जब विशेषतया दशमहाविद्याओं का पूजन किया जाता है। गुप्त नवरात्रि तान्त्रिक साधनाओं की दृष्टि से अधिक महत्त्वपूर्ण हैं।

दश महाविद्या :

1. काली : इन्हें कृष्णा व रक्तवर्णा भी कहा जाता है; साधना के द्वारा जब अहं, ममत्व व भेदबुद्धि का नाष होने से भक्तमन शिशु समान निर्मल हो जाता है तो मुण्डमालाधारिणी माता काली के दर्शन से वह कृतार्थ हो जाता है।

2. तारा : ये नीलवर्णा माता तारने वाली हैं, ये अनायास की वाक्षक्ति प्रदान कर सकती हैं जिससे इन्हें नील सरस्वती भी कहते हैं। भयंकर विपत्तियों से भक्तजनों की रक्षा करने के कारण ये उग्रतारा भी कहलाती हैं।

कैंची व कपाल से इनका विग्रह असाधारण प्रतीत होता है। वसिष्ठ द्वारा विशेष रूप से पूजित होने से तारा वसिष्ठाराधिता भी कही जाती हैं। विशेषतया चैत्र शुक्ल की नवमी की रात्रि तारारात्रि कहलाती है।

3. छिन्नमस्ता :

एक बार भगवती अपनी सहचरियों जया व विजया के साथ मंदाकिनी में स्नान कर रही थीं, फिर जया-विजया को भूख लगने लगी तो उन्होंने देवी से भोजन माँगा.

फिर देवी ने प्रतीक्षा करने को कहा तो ये सहचरियाँ बोल पड़ीं- ” सन्तानों को माता भूख से आतुर कैसे देख सकती हैं ?” माता ने बिना विलम्ब किये खड्ग से अपना शीश काटा व सहचरियों को रक्तपान कराया ताकि उनकी भूख मिट जाये, तभी से यह रूप छिन्नमस्ता कहा जाता है।

4. शोडषी :

पंचमुखी, चतुर्भुजी (कहीं-कहीं दसभुजी) व त्रिनेत्रधारिणी शोडषी माता की अंगकान्ति उदीयमान सूर्यमण्डल की आभा समान है। इनका आश्रय ग्रहण कर लेने वाले व ईश्वर में कोई भेद नहीं रह जाता। इनकी आराधना गर्भवास (जीवन-मरण के चक्र) से मुक्ति प्रदान करती है।

अनेक ग्रंथों में इन्हें ललिता, बालापंचदशि, राज-राजेष्वरी भी कहा जाता है। ये शान्तमुद्रा में लेटे हुए सदाशिव पर स्थित कमलासन पर आसीन हैं। शंकराचार्य ने श्रीविद्या के रूप में षोडषी की उपासना की है। दुर्वासा इनके परम आराधक हैं।

5. भुवनेश्वरी :

महाविद्याओं में पाँचवें स्थान पर ये देवी सौम्यस्वरूपिणी हैं। अंकुश व पाश इनके सदा साथ होते हैं। भुवनेश्वरी के कारण सदाशिव को सर्वेश होने की योग्यता प्राप्त होती है। भगवान् शिव का वामभाग भुवनेश्वरी हैं।

6. त्रिपुरभैरवी :

लालवस्त्रधारिणी त्रिपुरभैरवी के हाथ में जपमाला रहती है। ब्रह्माण्डपुराणानुसार ये गुप्त योगिनियों की अधिष्ठात्री देवी हैं। त्रिपुर भैरवी के उपासक विष्णु एवं भैरव वटुक हैं। मुण्डमाला तन्त्रानुसार ये भगवान् नृसिंह की अभिन्न शक्ति हैं।

7. धूमावती : खुले केश, काकध्वज, हाथ में सूप इनकी पहचान हैं, सुतरा भी इनका एक नाम है, अर्थात् ये व्यक्ति को सुखपूर्वक तार सकती हैं; ये दरिद्रता का नाश करने वाली कही जाती हैं।

8. वगलामुखी :

व्यष्टि रूप में शत्रुनाश करने वाली एवं समष्टि रूप से परमात्मा की संहार-शक्ति वगलामुखी पीताम्बरा हैं, इनके एक हाथ में मुद्गर व दूसरे हाथ में शत्रु की जिह्वा है।

ब्रह्माजी ने वगला महाविद्या की उपासना के उपरान्त इस विद्या का उपदेश सनकादिक मुनियों को प्रदान किया। सनत्कुमार ने देवर्षि नारद को एवं नारद ने सांख्यायन नामक परमहंस को इसका उपदेश किया। वगलामुखी के अन्य उपासकों में भगवान् विष्णु एवं परशुराम हैं.

परशुराम ने यह विद्या आचार्य द्रौण को बतायी थी। सतयुग में सम्पूर्ण जगत् का नाशक भयानक तूफान आया जिससे महाविष्णु प्राणियों के जीवन पर संकट आता देख चिंतित हो गये।

सौराष्ट्र में हरिद्रा सरोवर के समीप ये भगवती को प्रसन्न करने के लिये तप करने लगे। श्रीविद्या ने उस सरोवर से वगलामुखी के रूप में प्रकट होकर दर्शन दिया एवं उस विध्वंसकारी तूफान का त्वरित् स्तम्भन कर दिया। ये वैष्णवी कहलायीं।

9. मातंगी :

ये श्यामवर्णा हैं एवं चँद्र को मस्तक पर धारण किये रहती हैं। मतंगरूपी शिव की शक्ति मातंगी हैं। इनकी चार भुजाओं में पाश, अंकुश, खेटक व खड्ग है।

मतंगमुनि ने विविध वृक्षों से समृद्ध कदम्बवन में माता त्रिपुरा की कठोर तपस्या की जिससे त्रिपुरा माता के नेत्र से निकले तेज ने श्यामल नारीविग्रह धारण कर लिया जिसे राजमातंगिनी कहते हैं। ब्रह्मयामल में ये मतंगमुनि की कन्या हैं। वाक्सिद्धि के लिये उनकी उपासना की जाती रही है।

मातंगी के भैरव मतंग हैं। दुर्गासप्तशती के सातवें अध्याय में ये रत्नमय सिंहासन पर बैठकर पढ़ते हुए तोते के कर्ण प्रिय शब्द सुन रही हैं। इनके कण्ठ में कल्हार पुष्पों की माला है। हिमालय के सदृष चार श्वेतवर्णी विशाल हाथी सूण्डों में स्वर्ण-कलश लिये इन्हें स्नान करा रहे हैं।

10. कमला :

ये जगदाधार-शक्ति हैं। प्राकृतिक सम्पत्ति की अधिष्ठात्री देवी हैं। ब्रह्मा, विष्णु व षिव द्वारा पूजित होने से इनका नाम त्रिपुरा पड़ा।

अधिक सार्थक नवरात्रि कैसे मनायें ?

1. मूर्ति मिट्टी की ही हो एवं इसे आसपास कहीं गड्ढा खोदकर पानी व स्वेच्छानुसार गंगा-यमुना नदी-बूँदें मिलाकर उसमें विसर्जित करें जिससे प्रकृति को हानि से बचाया जा सकता है तथा चाहें तो देवी-स्मृति के रूप में वहाँ कदम्ब इत्यादि वृक्ष रोपकर वहाँ उसका नाम व महत्त्व लिख सकते हैं (दुर्गाजी को दुर्गासप्तशती में कदम्बवनवासिनी कहा गया है).

2. काँच-प्लास्टिक व अन्य हानिकारक सामग्रियों से निर्मित चुन्नियों इत्यादि के बजाय पर्यावरण-अनुकूल सामग्रियों का उपयोग करें

3. कन्याभोज में भाँति-भाँति के पकवानों के बजाय पारम्परिक हलुआ, पुड़ी, चने की सब्जी का समावेश करें, साथ में फल, कुछ धनराशि युक्त गुल्लक, बच्चियों की निज स्वच्छता के लिये सूती रूमाल इत्यादि जरुरी व सहायक सामग्रियाँ सौंपें, न कि आइसक्रीम व कृत्रिम सामग्रियाँ इत्यादि.

माता को भोग लगाना अथवा कुछ चढ़ाना हो अथवा कन्याभोज में सामग्रियों को सम्मिलित करना, रंग-बिरंगी सामग्रियों में सफेद व लाल को प्राथमिकता में रखें. हर वस्तु उत्पादन से अब तक निर्मल व ताजी़ होनी चाहिए.

4. नवरात्रि जैसी अथवा उससे भी अधिक शुद्धता व भक्ति का भाव अपने समग्र जीवन में अपनायें.

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