पेट के कीड़े दूर करने के आयुर्वेदीय व घरेलु उपाय Stomach Bacteria Causes Treatment In Hindi
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Stomach Bacteria Causes Treatment In Hindi
मानवों के पेट व आँतों में विभिन्न प्रकार के कृमि व कीट पनप सकते हैं जो वास्तव में परजीवी होते हैं. ये ऐसे जीव हैं जो मानव-पेट में रहकर वहीं से अपना पोषण करते हैं। हर प्रकार का कीट अथवा कृमि अलग प्रकार से मानव-स्वास्थ्य को प्रभावित करता है किन्तु ये एक से अन्य व्यक्ति में भिन्न-भिन्न लक्षण भी दर्शा सकते हैं.
Stomach Bacteria Causes Treatment In Hindi
पेट के कीड़े होने के लक्षण
पेट में कीड़े होने पर कुछ साधारण लक्षण लगभग सभी में देखे जाते रहे हैं.
1. भूख कम हो जाना
2. थकान
3. पेट में दर्द
4. पेट में सूजन अथवा फुलाव
5. मितली
6. वजन घटना
7. पेट व आँतों में असहजता
8. कुछ मामलों में व्यक्ति के मल में पेट के कीड़े अथवा उनके टुकड़े पाये जाते हैं।
9. बहुत सीमित मामलों में ऐसा भी पाया गया है कि आँत के कीड़ों के कारण आँत में गम्भीर अवरोध आ गया हो एवं आँतों की सहज गतियाँ न हो पा रही हों।
यदि आपको ये लक्षण दिखें तो तुरंत चिकित्सात्मक उपचार अपेक्षाकृत और अधिक आवश्यक हो जाता है.
1. उल्टी
2. तेज बुख़ार जो कुछ दिनों से अधिक से चला आ रहा हो
3. अत्यधिक थकान
4. निर्जलीकरण
5. मल का रंग बदलना
6. मल में रक्त
कीड़े व शरीर में इनके प्रवेश के तरीके
फीताकृति (टेपवार्म) : यह आँत में रहने वाले चपटे कृमि का एक प्रकार है जो आँत से चिपक जाता है। हो सकता है कि व्यक्ति को इनके लक्षण ही समझ न आयें। उप-प्रजाति अनुसार फीताकृति 3 से 10 मीटर्स लम्बे हो सकते हैं।
क्या है बचाव : साफ पानी पीयें, कुएँ के पानी को उबालकर पीयें। माँसादि न खायें। खुले रखे हुए कटे सलाद फल न खायें।
अंकुशकृमि (हूकवार्म) : यह आमतौर पर गंदगियों से भरी मिट्टी से शरीर में आता है। इसके शरीर का एक भाग अंकुश (हूक) अथवा मुड़ी सुई-सा मुड़ा लगता है। यह छोटी आँत में अपना स्थान बना लेता है जहाँ अण्डे देता है जो मल के माध्यम से शरीर से बाहर हो जाते हैं।
आँत में ही अण्डों से बच्चे निकलने के दौरान ये डिम्भक (लार्वा) दूसरे व्यक्ति की त्वचा से भी उसके शरीर में जा सकते हैं। खुले में शौच करने वालों एवं ऐसे इलाकों के सम्पर्क में आने वालों में ये आसानी से फैल जाते हैं। अधिकांश लोगों में संक्रमण के लक्षण नज़र नहीं आते।
फ़्लूक : यह चपटे कृमि का एक प्रकार है। इनका शरीर छोटी गोल पत्ती की आकृति जैसा होता है। मनुष्य इन्हें खाकर अथवा निगलकर अपने पेट में इन्हें घर बनाने का अवसर प्रदान कर दिया करते हैं, वैसे ये नाले का पानी सिंचे अथवा जलीय पौधों के माध्यम से भी हमारे पेट तक अपनी पहुँच बना सकते हैं। पेट में आकर वयस्क फ़्लूक्स पित्त वाहिनियों एवं यकृत में कब्ज़ा कर लेते हैं।
कुछ व्यक्तियों में लक्षण नहीं दिखते. अन्य व्यक्तियों में महीनों-सालों बाद लक्षण दिख सकते हैं जिन्हें पित्त-वाहिनियों में जलन अथवा उनके पूरी तरह बन्द होने की समस्या से जूझना पड़ सकता है। हो सकता है कि इनका यकृत असामान्य रूप से बढ़ चुका हो अथवा यकृत-जाँच में विचित्र चिह्न नज़र आयें।
क्या है बचाव : खाद्य-सामग्रियों को बहते पानी में धोकर, कुनकुने नमकीन पानी में कुछ मिनट्स छोड़कर धोकर प्रयोग करें एवं पेय पदार्थों को उबालकर प्रयोग करें।
पिनवार्म : यह एक छोटा-सा पतला गोलकृमि होता है जो उपरोक्त की अपेक्षा कुछ कम हानि पहुँचाता है एवं कभी-कभी मनुष्यों की बड़ी आँत व मलाशय में भी रह रहा हो सकता है। ये कृमि व्यक्ति से व्यक्ति के प्रत्यक्ष सम्पर्क अथवा संक्रमित सामग्री के प्रयोग से फैल सकते हैं।
पिनवाम्र्स के कारण आमतौर पर गुदा के आसपास खुजली होती है जो इतनी तेज हो सकती है कि सोना मुश्किल कर दे। रात के समय लक्षण स्पष्ट हो जाते हैं क्योंकि इस समय मादा पिनवार्म आसपास की त्वचा पर अण्डे देने के लिये गुदा में घिसट-घिसटकर चल रही होती है।
एस्केरिस : यह अंकुशकृमि जैसा होता है परन्तु कुछ ही इन्च लम्बा होता है। यह गंदगी भरी मिटटी में मिलता है एवं शरीर में तभी प्रवेश करता है जब इसके अण्डों को निगल लिया जाये। शरीर में प्रविष्ट होने के बाद यह आँतों में रह लेता है।
इसके संक्रमण की दशा को एस्केरियासिस कहा जाता है जिसमें नाममात्र के लक्षण सामने आ पाते हैं। वैसे गम्भीर संक्रमणों की स्थिति में आँतों के अवरोध अथवा बच्चों की बढ़त रुकनी सम्भव है।
ट्रिचिनेल्ला : ये कृमि गोलकृमि का एक अन्य प्रकार होते हैं जो माँसादि ( विशेष रूप से जंगली जानवरों का) खाने के माध्यम से मानव शरीर में आ जाते हैं। इनके डिम्भक आँतों को अपना निवास बनाकर यहीं पनपने लगते हैं। अपने पूरे आकार के होने पर ट्रिचिनेल्ला कृमि आँतों को छोड़ सकते हैं व पेशियों सहित अन्य ऊतकों में अपना ठिकाना ढूँढ सकते हैं।
इसके संक्रमण को ट्रिचिनोसिस कहते हैं जिसके लक्षणों में सर्दी लगना, पेशीय पीड़ा, संधियों में दर्द एवं चेहरे अथवा नेत्रों में सूजन सम्भव है। संक्रमण की गम्भीरता बढ़ जाने पर साँस लेने में कठिनाई हो सकती है अथवा हृदय पर प्रभाव पड़ सकता है अथवा यह भी सम्भव है कि व्यक्ति का चलना-फिरना ही मुश्किल हो जाये। अतिगम्भीर स्थिति में मृत्यु सम्भव।
किन्हें जोख़िम अधिक
वैसे ऊपर इस प्रश्न का उत्तर कुछ सीमा तक लिख ही दिया गया है; शिशुओं, वृद्धजनों, गर्भवतियों सहित दुर्बल प्रतिरक्षा-तन्त्र वाले व्यक्तियों को पेट के कृमि लग जाने की आशंका अधिक रहती है तथा शरीर, घर व बाहर भी साफ-सफाई को ध्यान में रखना आवश्यक है। गर्भवतियों को जोख़िम इसलिये भी अधिक रहता है क्योंकि पेट से कीड़े निकालने की दवाइयाँ उनके गर्भस्थ शिशु के लिये हानिप्रद हो सकती हैं।
शंका का निवारण कर लेना जरूरी है, अन्यथा पेट के कीड़े मानव के पाचन-तन्त्र में सुचारु प्रोटीन-अवशोषण में बाधा डाल सकते हैं. रक्तपान करने वाले कीड़ों एवं भोजन से लौह-अवशोषण में बाधा बनने वाले कीड़ों से एनीमिया तक हो सकता है।
समय रहते उपयुक्त इलाज न कराया जाये तो पेट व आँत की आन्तरिक गतियों में बाधाएँ पड़ सकती हैं एवं सम्पूर्ण शरीर में विभिन्न रोग पनप सकते हैं। सिस्टिसेर्कोसिस एक ऐसा परजीवी ऊतक-संक्रमण है जो टीनिया सोलियम नामक फीताकृमि की लार्वल सिस्ट्स से होता है; ये लार्वल सिस्ट्स मस्तिष्क, पेशियों व अन्य ऊतकों को संक्रमित कर देती हैं तथा नेत्रों को क्षतिग्रस्त करने के साथ-साथ ये व्यक्ति में दौरे पड़ने का कारण बन जाती हैं।
पेट के कीड़े दूर करने के परीक्षण
चिकित्सक लक्षणों को देखते हुए निम्नांकित जाँच कराने को बोल सकता है.
1. संक्रमण के संकेत समझने के लिये मल-परीक्षण.
2. कुछ परजीवियों की उपस्थिति परखने के लिये रक्त-परीक्षण.
3. कोलोनास्कोपी जिसमें गुदाद्वार से एक पतले कॅमरायुक्त नली भीतर ले जाकर आन्तरिक जाँच की जाती है.
4. विकिरण से जाँच ताकि परजीवी द्वारा अन्य अंगों को पहुँची क्षति देखी जा सके.
5. टेप-टेस्टः इसमें व्यक्ति के गुदामार्ग में टेप का एक टुकड़ा लगा दिया जाता है एवं व्यक्ति के सोने व नींद से जागने के बाद उस टेप को निकालकर जाँचा जाता है कि कहीं उसमें किसी कृमि में अण्डे इत्यादि तो नहीं।
पेट के कीड़े दूर करने के सुरक्षात्मक बचाव
वैसे तो ऊपर उल्लेखों के साथ-साथ बचाव के उपाय भी पता चल ही गये होंगे। कुछ मूलभूत स्वच्छतामूलक सावधानियाँ बरतें तो काफ़ी सीमा तक पेट-कृमियों से बचा जा सकता है.
1. सब्जियों को काटकर धोने के बजाय छीलकर धोकर काटें। सब्जियाँ धोने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि सर्वप्रथम बहते पानी के नीचे ले जाकर धोयें, फिर कुनकुने नमक मिले पानी में कुछ मिनट्स उन्हें डुबोये रखें एवं फिर उन्हें निकालकर अन्तिम बार बहते पानी के नीचे ले जायें. बहते पानी के नीचे ले जाने के लिये छलनीदार तबेली छिद्रित गंजी का प्रयोग किया जा सकता है।
इस प्रकार कीड़ों के अण्डे इत्यादि हटाने के साथ-साथ रासायनिक पीड़कनाशियों के अंश हटाने में भी सहायता होगी। सलाद व धनिया-पुदीना जैसे कच्चे प्रयोग किये जाने वाले खाद्य-पदार्थों के मामले में ऐसा करना और अधिक आवश्यक हो जाता है।
2. खुली-पड़ी कटी सब्जियाँ-फल न खायें।
3. खुले में मल-मूत्र त्यागने जैसी प्रवृत्तियाँ न हों। खुले में मल – मूत्र त्यागने से बहुत बीमारियाँ फ़ैल जाती है जिससे समाज में बहुत नुकसान हो सकता है.
4. पहनने के सभी कपड़ों को प्रतिदिन धोयें (हो सके तो आखिरी धोवन में डिटोल की कुछ बूँदें मिलायें )।
5. खुले में ठेलों पर बिकने वाली खाद्य-सामग्रियों का सेवन किया अवश्य जा सकता है परन्तु विशेष सावधानी से।
6. पानी यदि थोड़ा भी संदिग्ध लगे तो उसे उबालकर अथवा महीन कपड़े से छानकर पीयें।
7. आटा गूँथना हो अथवा सब्जी काटनी हर बार ढंग से हाथ धोकर ही करें,
8. मूत्रोत्सर्ग के बाद भी हाथ-पैर अनिवार्य रूप से धोयें। साफ-सफाई के मार्ग में ठण्ड के मौसम को भी बाधा न बनने दें।
9. ताजा फलादि रस स्वास्थ्य के लिये अच्छे हो सकते हैं परन्तु दुकान में स्वच्छता की जाँच स्वयं कर ले.
10. चक्कू व अन्य रसोई-बर्तनों को हर बार साफ Vim सर्फ़-पानी से ठीक से धोकर ही पुन: प्रयोग करें.
अगर आप पतंजलि की कीड़े मारने की दवा के बारे में जानना चाहते है तो यह पढ़े – पतंजलि पेट के कीड़े की दवा
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