रहीम खानखाना रहीम दास की जीवनी ! Abdur Rahim Khankhana Biography In Hindi
जो गरीब सों हित करैं, धनि रहीम वे लोग |
कहाँ सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग ||
अर्थात जो लोग गरीबों का भला करते है वास्तव में वे ही धन्य है. कहाँ द्वारिका के राजा कृष्ण और कहाँ गरीब ब्राहमण सुदामा. दोनों के बीच अमीरी – गरीबी का बहुत बड़ा अंतर था, फिर भी श्रीकृष्ण ने सुदामा से मित्रता की और उसका निर्वाह किया.
उक्त पंक्तियों की रचना महान कवि रहीम ने की. रहीम ने कविताओं व दोहों में नीति और व्यवहार पर बल दिया और समाज को आदर्श मार्ग दिखाया. उन्होंने काव्य के द्वारा जिस सामाजिक मर्यादा को प्रस्तुत किया वह आज भी अनुकरणीय है.
रहीम का जन्म लाहौर (जो अब पाकिस्तान में है) में सन 1556 ई. में हुआ. इनके पिता बैरम खां हुमायूँ के अतिविश्वसनीय सरदारों में से एक थे. हुमायूँ की मृत्यु के बाद बैरम खान ने 13 वर्षीय अकबर का राज्याभिषेक कर दिया तथा उनके संरक्षक बन गये. हज यात्रा के दौरान मुबारक लोहानी नामक एक अफगानी पठान ने बैरम खान की हत्या कर दी.

Rahim Das
रहीम उस समय मात्र पांच वर्ष के थे. रहीम अपनी माँ के साथ अकबर के दरबार में पहुंचे. अकबर ने रहीम के लालन – पालन की व्यवस्था राजकुमारों की तरह की. उन्होंने रहीम को ‘मिर्जा खान’ नामक उपाधि भी प्रदान की जो केवल राजकुमारों को दी जाती थी.
अकबर रहीम को अत्यधिक पसंद करते थे. उन्होंने रहीम की शिक्षा के लिए मुल्ला अमीन को नियुक्त किया. रहीम ने मुल्ला अमीन से अरबी, फ़ारसी, तुर्की, गणित, तर्कशास्त्र आदि का ज्ञान प्राप्त किया. अकबर ने रहीम के संस्कृत अध्ययन की भी व्यवस्था की. बचपन से ही अकबर जैसे उदार व्यक्ति का संरक्षण प्राप्त होने के कारण रहीम में उदारता और दानशीलता के गुण भर गये.
रहीम को काव्य सृजन का गुण पैतृक परम्परा से प्राप्त हुआ था. कविता करना उनके वंश में आवश्यक गुण समझा जाता था, इसे अतिरिक्त गुण समझा जाता था. इसके अतिरिक्त उन्हें राज्य संचालन, वीरता और दूरदर्शिता भी पैतृक रूप से मिली. मिर्जा खान रहीम की कार्य कुशलता, लगन और योग्यता देखकर अकबर ने उन्हें शासक वंश से जोड़ने का निश्चय किया क्योंकि इसी से उनके शत्रुओ का मुँह बंद किया जा सकता था. अकबर ने रहीम का विवाह माहम अनगा की बेटी तथा खानेजहाँ अजीज कोका की बहन से करा दिया.
सन 1573 ई. में मिर्जा खान रहीम का राजनीतिक जीवन आरम्भ हुआ. अकबर गुजरात के विद्रोह को शांत करने के लिए अपने कुछ विश्वसनीय सरदारों को लेकर गये थे. उनमे 17 वर्षीय मिर्जा खान भी थे. सन 1576 ई. में अकबर ने उन्हें गुजरात का सूबेदार बनाया. सन 1580 तक मिर्जा खान ने राजा भगवानदास और कुंवर मानसिंह जैसे योग्य सेनापतियों की संगति में रहकर अपने अन्दर एक अच्छे सेनापति के गुणों को विकसित कर लिया.
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प्रधान सेनापति के रूप में उन्होंने बहुत लड़ाईयां जीतीं. 28 वर्ष की आयु में मिर्जा खान को अकबर ने ‘खानखाना’ (सरदारों का सरदार) की उपाधि प्रदान की. अब उनका नाम मिर्जा खान अब्दुर्रहीम खानखाना हो गया. सन 1586 में अकबर ने उन्हें वकील की पदवी से सम्मानित किया. इससे पहले यह सम्मान केवल उनके पिता बैरम खान को प्राप्त हुआ था.
उच्च कोटि के सेनापति और राजनीतिज्ञ होने के साथ ही रहीम श्रेष्ठ कोटि के कवि भी थे. अकबर का शासन काल हिंदी साहित्य का स्वर्णकाल माना जाता है. इसी समय रहीम ने ब्रजभाषा, अवधी तथा खड़ी बोली में रचनाएँ की. उनकी प्रमुख रचनाएँ रहीम सतसई, बरवै नायिका भेद, राम पंचाध्यायी, श्रृंगार सोरठ, मद्नाष्ट्क तथा खेल कौतुक है. रहीम सतसई मुख्यतः ब्रजभाषा में है जिसमे लगभग 412 दोहे उपलब्ध है.
रहीम की कविता नीति एवं ज्ञान से परिपूर्ण है. उसमे व्यवहारिकता और जीवन का सत्य है. उन्होंने नीति परक दोहों में अपने जीवन के अनुभवों को सरल, सरस एवं रोचक संदर्भो के साथ प्रस्तुत किया है.
रहीम समाज की कुरीतियों, आडम्बरों के भी आलोचक थे. वे मानवता के रचनाकार थे. उन्होंने धर्म, सम्प्रदाय से दूर कर राम रहीम को एक माना. रहीम ने राम, सरस्वती, गणेश, कृष्ण, सूर्य, शिव – पार्वती, हनुमान और गंगा की स्तुति की है. भाषा, धर्म – सम्प्रदाय में न उलझकर उन्होंने मानवधर्म को परम धर्म माना.
सन 1605 ई. में अकबर की मृत्यु के बाद उनके पुत्र जहाँगीर से रहीम की नहीं बनी. जहाँगीर ने राजद्रोह के अभियोग में उन्हें कैद करवा लिया. उनकी सारी सम्पत्ति पर कब्ज़ा कर लिया. कैद से छूटने के बाद उन्हें गंभीर आर्थिक संकटों से जूझना पड़ा. वह दुखी होकर चित्रकूट चले आये.
रहीम के अंतिम दिन बहुत ही संघर्ष पूर्ण रहे. वह बीमार पड़ गये. उन्हें दिल्ली लाया गया जहाँ सन 1628 में उनकी मृत्यु हो गई. उन्हें हुमायूँ के मकबरे के सामने अपने ही द्वारा बनवाये गये अधूरे मकबरे में दफनाया गया. अब्दुर्रहीम खानखाना अपनी रचनाओं के कारण आज भी जीवित है. अकबर के नौ रत्नों में वे अकेले ऐसे रत्न थे जिनका कलम और तलवार पर समान अधिकार था.
उन्होंने समाज के सामने ” सर्वधर्म समभाव ” का अनोखा उदाहरण प्रस्तुत किया जो मानव मात्र के लिए ग्रहणीय है.
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bahut hi vadiya post hai bhai jaan
bahut achhi jankari di hai padhkr achha lga thank you
लेखन में कुछ त्रुटिया है जिन पर एक बार ध्यान दीजियेगा
वैसे बहुत अच्छा लगा है thank you so much for help us
आपका धन्यवाद सर।
स्कूली दिनों में रहीम दास जी के दोहे हम सब खूब चाव से पढ़ा करते थे। आपकी पोस्ट ने फिर रहीम दास जी की याादें ताज़ा कर दीं। रहीम दास मुस्लिम धर्म से थे। पर उन्हें धार्मिक कटटरता की जगह सूफी वाद को प्रमुख स्थान दिया। आज देश का हर व्यक्ति महान सूफी अब्दुर्रहीम खानखाना को बड़े ही सम्मान के साथ याद करता हैै। सुंदर आर्टिकल।